कबीर और तुलसी के राम

 

कबीर और तुलसी के राम

भारतीय संस्कृति में राम एक चिर परिचित नाम है।  राम की परिकल्पना हर युग हर भाषा के कवि ने अपनी-अपनी शैली में की है। भक्तिकाल के कवियों में कबीर दास एवं तुलसीदास दोनों  ने ही  अपने भावों की अभिव्यक्ति राम के माध्यम से की है।

कबीर दास जी ने यह चित्रण आंशिक रूप में किया है जबकि तुलसीदास जी का समग्र साहित्य राम को ही समर्पित है। इन दोनों ही संत कवियों के कार्य में राम का वर्णन होते हुए भी दोनों के राम का स्वरूप भिन्न-भिन्न है।


कबीर के राम निर्गुण ब्रह्म है। उनके राम अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम से अलग है। कबीरदास जी कहते हैः-

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना ।

राम नाम को मरम है आना ।।

कबीर निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक हैं और उन्होंने उसका नाम राम रखा। अर्थात उन्होंने अपनी भक्ति भावना को प्राप्त करने के लिए राम को आलंबन बनाया था।  कबीर अपने को सेवक और राम को सेव्य मानते हुए कहते हैः-

कबीर कुता राम का मुतिया मेरा नाऊँ।

गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥

वस्तुतः कबीर के राम बौद्दौ के शून्य ब्रह्म के प्रतिरुप हैं। उन्होंने राम के रूप में बौद्दौ के शून्य ब्रह्म के प्रतिरुप प्रदान किया है।

कबीरदास के राम पुराण प्रतिपादित अवतार नहीं थे वह न दशरथ के घर उतरे थे और ना लंका के राजा का नाश करने वाले हुए। कबीर ने अपने राम का अनुभव करते हुए उसे गूंगे का गुड़ बताया है।

अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाय |

गूंगे   केरी  सरकरा , खाय बैठ  मुसकाय ||

कबीर के राम अमृत रुप हैं, निरंजन हैं और कबीर सहज समाधि की अवस्था में ही  उस अमृत रस का पान करते हैं।  कबीर के इन राम की गति अज्ञात है।  उन का रूप कैसा है,वह कहां निवास करते हैं, वह स्थान शून्य है अथवा वहां कुछ और है आदि बातों को कोई नहीं जानता स्वयं कबीर भी नहीं जानते।  इस समय कबीर की स्थिति बहुत कुछ सगुण भक्ति कवियों के समान दिखाई देती है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कबीर के राम त्रिगुणातीत, दैव्तादैत, विलक्षण, भावाभावविर्निमुक्त, अलख, अगम, अगोचर,प्रेम पारावार है। कबीर के राम अनुभव का विषय है अनुभूति का नहीं।

तुलसी के राम की परिकल्पना

तुलसी ने अपने राम में जिस राम की परिकल्पना की है वह अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम है किंतु तुलसी ने इन्हीं राम को दो के दो रूप वर्णित किए हैं मानव रूप और ब्रह्म रूप।

अपने अलौकिक रूप में राम मानव हैं और पारलौकिक रूप में ब्रह्म । जहां राम के मानवीय चरित्र में कहीं परंपरा का उल्लंघन,दोष आदि दिखाई पड़ते हैं वहां तुलसी राम की अलौकिकता-ब्रह्मत्व की आड़ लेकर लीला बताकर दोषों का परिहार करने का प्रयत्न करते हैं। उस समय राम मानव न रहकर पूर्ण ब्रह्म दोष रहित हैं। इसलिए उनके सारे कार्य मानव की रक्षा और कल्पना के लिए ही होते हैं फिर चाहे इनके द्वारा सामाजिक मान्यताओं का उल्लंघन ही क्यों ना हुआ हो। मानव रूप में आने पर राम के चरित्र में अलौकिक गुणों का समन्वय हो जाता है परंतु उनके लौकिक गुण भी अलौकिक तत्वों से समन्वित रहते हैं। उनमें अलौकिक भक्तवत्सलता तथा शरणागत भक्तवत्सलता है।


यहां अलौकिकता से अभिप्राय गुणों की चरम असामान्य उत्कर्ष से है किसी चमत्कार से नहीं। अपने सामान्य रूप से राम पूर्ण मानव हैं, वे सरल स्वभाव के हैं, सबके प्रिय हैं, पुत्र, राजा, स्वामी, सखा आदि सभी रूपों में आदर्श हैं। इस प्रकार तुलसी ने राम के चरित्र में अलौकिक अलौकिकता का समन्वय कर पूर्ण मानव का आदर्श चरित्र प्रस्तुत किया है जो अपने समस्त रूप में शुभ कल्याण का प्रतीक बन गया है। दशरथ अजीर बिहारी तथा उमा सहित पुरारी द्वारा आधारित राम दोनों रूपों में मंगल भवन अमंगल हारी हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निर्गुण और सगुण बाहर से भिन्न प्रतीत होते हुए भी एक हैं। कबीर जब अपने निर्गुण ब्रह्म का वर्णन विशुद्ध प्रेम के रूप में करते हैं तो वह सगुण जैसा ही लगने लगता है। इसी प्रकार सूर और तुलसी भी जब अपने सगुण ब्रह्म की महिमा का गुणगान करते हैं तो वह वर्णन निराकार ब्रह्म का ही वर्णन प्रतीत होने लगता है। प्रेममार्गी कवियों का ब्रह्म जब प्रेमी का रूप धारण कर लेता है तो वह हमेशा साकार रूप में ही दिखाई देता है।

निर्गुण और सगुण के अर्न्तसाम्य पर टिप्पणी करते हुये प्रोफेसर राजनाथ शर्मा नें लिखा है कि र्निगुण और सगुण का मिश्रण इन संतों की कोई निराली विशेषता नहीं रही है । भक्ति कवियों नें भी जहाँ अपनें आराध्य के ब्रह्म रूप का वर्णन किया है वहाँ उनके आराध्य राम और कष्ण भी निर्गुण निराकार बन जाते हैं- अन्तर केवल अनुपालन का रहता है। भक्ति कवि साकार ब्रह्म की भावना तक पहुंचते हैं जो भक्तों के विकास का स्वाभाविक क्रम है।

 इसके विपरीत संत कवि निराकार तक सीधे पहुंचना असंभव और असाध्य जान उसे साकार रूप में ग्रहण करने के लिए मजबूर हो जाते हैं,यह मजबूरी ही उन्हें जटिल बना देती है।

यह अनुमान है कि संतो की स्वाभाविक भक्ति भावना साकार रूप की ही उपासिका रही होगी ।  परंतु अपने पूर्ववर्ती सिद्धनाथ पंथियों और महाराष्ट्र के संत कवियों के प्रभाव एवं उन्हें दीक्षा देने वाले गुरुओं के बंधनों के कारण उन्हें ब्रह्म को निराकार निर्गुण मानना पड़ा होगा।

कबीर राम के नाम को तो स्वीकार कर लेते हैं परंतु प्रयत्न पूर्वक उन्हें दशरथ सुत राम से भिन्न घोषित करते हैं आखिर इस घोषणा की जरूरत क्या थी।

यहां स्वयं को अन्य से विशिष्ट और निर्गुण निराकार का उपासक सिद्ध करने का ही प्रयत्न दिखाई पड़ता है। इसे सांप्रदायिक आग्रह माना जा सकता है। यह कार्य वे जागरूक होकर करते हैं परंतु जब भक्त के उन्मेष में निमग्न होते हैं तो वह यह भूल जाते हैं कि वह अनायास ही साकार की उपासना कर रहे हैं।

डा.अलका दूबे

एम.ए.(हिन्दी)

पी.एच.डी._

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